मानव सोच

मनुष्य प्रकृति की उत्कृष्तम रचना है।  इस धरा के प्राणियों मे उसे सर्वाधिक सोचने की क्षमता प्रदान है।  
यह सोच दिमाग की वो तरंगे है। जिसे मानो सदियों से असंख्य लोगो के द्वारा कुएँ से निकला गया जल के समान है। 
यदि यह सोच स्थिर हो जाए तो वह कुएँ की सतह पर हरी काई के सड़े हुए पानी के समान है। 
मनुष्य द्वारा सोचा हुआ शब्द,वह शब्द है। जो एक बार सोच लेने पर दुबारा उसी समान नहीं सोच सकता है। 
क्योकि मानव दिमाग क्षरभंगुर है।  जो हर पल बदलता रहता है। अभी कुछ सोचा और अगले पल कुछ और सोच लिया।  
मानव सोच कभी भी स्थिर नहीं रह सकता है।  मानव मस्तिक आध्यात्मिक या कोई भी दैविक विधि -विधान द्वारा दुबारा नहीं सोचा जा सकता है। और ना ही सोच को बाँधा व रोका जा सकता है। 
जब तक मानव अपनी सोच पर कुछ हद तक नियंत्रण ना करे तो यह आकाश की ऊंची उड़ानें भरता रहता है। 
तो कभी मानव सोच वर्तमान मे ना होकर भूतकाल व भविष्य पर ज्यादा जोर देता है। 
मानव सोच सकारात्मकता व नकारात्मकता मे, सृजनात्मक,चमत्कारी,विध्वंशकारी और निरर्थक भी हो सकता है। 
जिसका असर मानव के वातावरण परिस्थिति पर पड़ने के साथ आने वाली पीढ़ियो पर भी असर पड़ता है।